Thursday 20 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (पांचवीं कड़ी)


                                      द्वितीय अध्याय (२.0१-२.0५)
                                             (with English summary)


राजा जनक ने कहा :
King Janak says :


मैं निर्दोष, शांत, परे प्रकृति से, कैसे इससे अनभिज्ञ रहा|
मैं हूँ ज्ञान स्वरुप भूल कर, क्यों  मोह जाल संतप्त रहा||(२.१)

I am spotless, calm and beyond nature. I am knowledge
personified. I am surprised why I remained deluded
so long. (2.1)


यथा प्रकाशित करता यह तन, वैसे विश्व प्रकाशित करता|
अतः समस्त विश्व हूँ मैं ही, अथवा मेरा अस्तित्व न रहता||(२.२)

As I illuminate this body, similarly I illuminate this
entire universe. Therfore, either this entire universe
is mine, or is nothing. (2.2)


यदि शरीर के साथ है अपने, मुझे विश्व छोड़ना हो संभव|
शायद कुछ कौशल के बल पर ही है  प्रभु देखना संभव||(२.३)

Now by abandoning this body along with the
universe, it is possible to see the Supreme God
with some skill.(2.3)


पानी अलग नहीं होता है, लहर, फेन बुलबुलों से जैसे|
आत्मा से निकले इस जग से, आत्मा नहीं भिन्न है वैसे||(२.४)

As waves, foam and bubbles are not separate
from water, similarly this world which has
emanated from Soul is not different from Soul.(2.4)


यदि विचार कर के यह देखें, वस्त्र है केवल धागा लगता|
वैसे ही सम्पूर्ण विश्व यह, मात्र है केवल आत्मा लगता||(२.५)

We realise on analysis that the cloth is nothing
but thread, similarly this entire world is also
nothing but the Self. (2.5)

                                               ...क्रमशः

...©कैलाश शर्मा

Sunday 16 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (चौथी कड़ी)

                                            प्रथम अध्याय (१.१६-१.२०)
                                      (with English summary)

सर्व विश्वव्यापी हो तुम तो, जगत पिरोया हुआ है तुम में|
ज्ञानस्वरूप शुद्ध हो तुम तो, क्षुद्र विचार न लाओ मन में||(.१६)
You have pervaded this entire world and in fact this world is pervaded in 
you like string. You are personification of pure knowledge. 
Therefore, you should not bring small things to your mind.(1.16)

निर्विकार, निरपेक्ष, शांत हो, तुम अगाध बुद्धि के सागर|
कर्म रहित होकर के अब तुम, मन चैतन्य रूप स्थिर कर||(.१७)
You are changeless, desireless, calm and store of pure awareness. You are free from all actions. Therefore, you should be nothing but consciousness.(1.17)

जो शारीरिक असत जानकर, निराकार चिर स्थिर मानो|
पुनर्जन्म से मुक्त है होगे, जब यह तत्व है तुम पहचानो||(.१८)
Whatever bears a form or body is unreal and only formless or unmanifest is permanent. If you realise this then you will be free from rebirth.(1.18)

रूप जो दर्पण में प्रतिबिंबित, वह अन्दर बाहर भी होता|
वैसे शरीर के अन्दर बाहर, परम आत्मा भी है होता||(.१९)
The reflected image in the mirror exists both within it and outside. Similarly, the Supreme Self exists both within and outside the body. (1.19)

जैसे है आकाश एक ही, घट के भीतर बाहर रहता|
वैसे सतत व शाश्वत ईश्वर, सर्व प्राणियों में है रहता||(.२०)
Just as all pervading space exists both within and outside the jar, the 
everlasting and continuous Supreme Consciousness exists both within 
and outside of every one.(1.20)


                          (प्रथम अध्याय समाप्त)
                                                     ....क्रमशः

.......©कैलाश शर्मा

Monday 10 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (तीसरी कड़ी)

                          प्रथम अध्याय (१.१२-१.१६)
                        (with English summary)

आत्मा पूर्ण, मुक्त, साक्षी है, निस्पृह, चेतन और असंग|
सांसारिक लगती है भ्रम वश, व्यापक, निर्मल और निसंग||(.१२)
(The Soul is perfect, free, witness, actionless, and all pervading. It is desireless, peaceful and is not attached to anything. It is only only our illusion that we see Soul worldly.)

चेतन, नित्य, अद्वैत है आत्मा, उसमें अपना चित्त लगा कर|
अहंकार अपने को तज कर, बाह्य जगत समझो तुम अन्दर||(.१३)
(Meditate on your actionless, timeless inner self, which is free from dualism. You should be free from the illusion of ‘I’ and think the external world as part of you.)

करते हो अभिमान देह का, इसको तुम सर्वस्व है मानो|
ज्ञान खड्ग से बंध काट कर, अपना आत्म रूप तुम जानो||(.१४)
(You are proud of and have bound your identity with your body since long. You cut this snare with the help of the sword of knowledge that you are pure awareness and be happy.)

स्वयं प्रकाशित, दोषमुक्त तुम, कर्ममुक्त और हो निस्पृह|
ध्यान के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का, यह तेरा प्रयास है बंधन||(.१५)
(You are in reality already self-illuminating, stainless, actionless and unattached. Your effort to calm your mind with the help of meditation is your only bondage)

सर्व विश्वव्यापी हो तुम तो, जगत पिरोया हुआ है तुम में|
ज्ञानस्वरूप शुद्ध हो तुम तो, क्षुद्र विचार न लाओ मन में||(.१६)
(You have pervaded this entire world and in fact this world is pervaded in you. You are personification of pure knowledge. Therefore, you should not bring small things to your mind.)

                                                                         ....क्रमशः

...©कैलाश शर्मा

Wednesday 5 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (दूसरी कड़ी)

             प्रथम अध्याय (१.६-१.११)

सुख दुख, धर्म अधर्म हैं, केवल मन के रूप,
न तुम कर्ता न भोक्ता, तुम हो मुक्त स्वरूप.(.)

तुम हो दृष्टा जगत के, मुक्त सदा ही आप,
दृष्टा समझें और को, इस बंधन में आप.(.)

अहंकार से ग्रसित तू, लेता कर्ता मान,
मैं तो कर्ता हूँ नहीं, सुख पावे यह जान.(.)

ज्ञान रूप पहचान कर, दहन करो अज्ञान,
शोकरहित हो जाए मन, सुख का हो संज्ञान.(१.९)

 जैसे रस्सी में लगे, सर्प होन का भान,
कर अनुभव आनंद का, असत विश्व यह जान.(१.१०)

मुक्त मानते मुक्त हो, बद्ध मानते बद्ध,
यथा बुद्धि है तथा गति, यह है कथन प्रसिद्ध.(१.११)

                                    ....क्रमशः

...©कैलाश शर्मा

Saturday 1 August 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद



‘अष्टावक्र गीता’ अद्वैत वेदान्त का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राजा जनक के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का ऋषि अष्टावक्र के द्वारा समाधान किया गया है. ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे प्राप्त होती है? वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है? ये प्रश्न ज्ञान पिपासुओं को सदैव उद्वेलित करते रहे हैं और इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ऋषि अष्टावक्र ने संवाद के माध्यम से अष्टावक्र गीता में दिया है. ऋषि अष्टावक्र का शरीर आठ जगहों से टेड़ा था इसलिए उन्हें अष्टावक्र कहा जाता था. अध्यात्मिक ग्रंथों में अष्टावक्र गीता का एक महत्वपूर्ण स्थान है.

अष्टावक्र गीता का बोधगम्य हिंदी में भाव-पद्यानुवाद करने का एक प्रयास आपके समक्ष है. आशा है कि अपनी प्रतिक्रिया और सुझावों से इसे और बेहतर बनाने में अपने सहयोग से अनुग्रहीत करेंगे. अष्टावक्र गीता का हिंदी भाव-पद्यानुवाद क्रमशः प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा.

            प्रथम अध्याय 

जनक :
ज्ञान प्राप्त कैसे करें, कौन मोक्ष का मार्ग,
कौन राह वैराग्य को, बतलाओ वह मार्ग.(१.१)

अष्टावक्र :
अगर चाहते मुक्ति तुम, विष विषयों को जान,
क्षमा दया संतोष सत, सहज है अमृत पान.(१.२)  

धरा न जल या अग्नि हो, तुम न वायु आकाश,
केवल साक्षी मात्र तू, तू चैतन्य प्रकाश.(१.३)

करके प्रथक शरीर से, करे चित्त विश्राम,
प्राप्त करे सुख शांति को, मुक्ति बने परिणाम.(१.४)

वर्ण, जाति से तुम परे, सभी विषय से दूर,
निराकार, निर्लिप्त बन, सुख पाओ भर पूर.(१.५)

                         ....क्रमशः

...©कैलाश शर्मा